क्राइमदेश

लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर वार: सच कहने की कीमत बनी पत्रकारों की जान

छत्तीसगढ़ से ओडिशा तक — पाँच राज्यों में हुई पत्रकारों की मौतें बताती हैं कि निडर पत्रकारिता आज किस तरह के खतरों का सामना कर रही है।

लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को आज अपने काम के दौरान गंभीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है। यह एक कड़वी सच्चाई है जिसने हाल ही में हुई कुछ दुखद घटनाओं के कारण देशव्यापी चिंता पैदा कर दी है। सत्य को उजागर करने का साहस रखने वाले पत्रकारों की सुरक्षा का मुद्दा एक बार फिर केंद्र में आ गया है। हाल ही में पांच पत्रकारों की मौत की घटनाओं ने देश में उनके लिए काम करने के माहौल और सुरक्षा पर बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं।

हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट में इन त्रासदियों को विस्तार से सामने रखा गया है। विभिन्न राज्यों से आने वाले, और अलग-अलग तरह की पत्रकारिता करने वाले इन पत्रकारों की कहानियों का अंत दुखद रहा है। ये घटनाएं दिखाती हैं कि चाहे आप किसी बड़े मीडिया हाउस से जुड़े हों या छोटे डिजिटल पोर्टल या फ्रीलांसर हों, खतरों से कोई अछूता नहीं है।

बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट ने उन पांच पत्रकारों पर ध्यान केंद्रित किया है, जिनकी मौत ने पत्रकारिता जगत को झकझोर दिया है। उनकी कहानियाँ न केवल व्यक्तिगत क्षति हैं, बल्कि पूरे भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी भी हैं।

पांच पत्रकार और उनकी अधूरी दास्तानें

1. मुकेश चंद्राकर

33 वर्षीय फ्रीलांस पत्रकार मुकेश चंद्राकर जनवरी 2025 में छत्तीसगढ़ से लापता हो गए थे। दो दिन बाद, उनका शव एक सेप्टिक टैंक में पाया गया। जांच में पता चला कि यह टैंक उसी ठेकेदार से संबंधित था, जिसके भ्रष्टाचार को लेकर मुकेश ने खबरें प्रकाशित की थीं। यह मामला स्पष्ट रूप से पत्रकारिता और उसकी ईमानदारी पर किए गए हमले को दर्शाता है। यह दिखाता है कि जब पत्रकार भ्रष्ट तत्वों को बेनकाब करते हैं, तो उन्हें किस हद तक कीमत चुकानी पड़ सकती है।

2. राघवेंद्र बाजपेयी

उत्तर प्रदेश के सीतापुर में 8 मार्च 2025 को राघवेंद्र बाजपेयी की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। पुलिस का कहना था कि राघवेंद्र की हत्या तब की गई जब उन्होंने कथित तौर पर एक नाबालिग का यौन शोषण होते देखा था। यदि यह बात सच है, तो यह दर्शाता है कि पत्रकार न केवल अपनी रिपोर्टिंग के कारण, बल्कि एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में किसी अपराध को रोकने या उजागर करने के प्रयास में भी अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं।

3. धर्मेंद्र सिंह चौहान
Haryana Journalist dharmendra singh chauhan

आरटीआई एक्टिविस्ट और पत्रकार धर्मेंद्र सिंह चौहान की हत्या 18 मई को हरियाणा के झज्जर में उनके घर के पास सिर में गोली मारकर की गई थी। आरटीआई कार्यकर्ता होने के नाते, धर्मेंद्र का काम अक्सर सत्ता और व्यवस्था में व्याप्त खामियों को सामने लाना रहा होगा। उनकी हत्या इस बात का प्रमाण है कि सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करने वाले और खोजी पत्रकारिता करने वाले लोग किस तरह अपराधियों और शक्तिशाली लोगों के निशाने पर रहते हैं।

4. राजीव प्रताप

इस साल सितंबर महीने में 36 वर्षीय यू-ट्यूब पत्रकार राजीव प्रताप नौ दिनों तक लापता रहने के बाद एक डैम में मृत पाए गए थे। उनके परिवार ने उनकी हत्या की आशंका जताई थी, लेकिन एसआईटी (विशेष जांच दल) ने इसे एक सड़क दुर्घटना बताकर मामला बंद करने का प्रयास किया। यह घटना एक और गंभीर पहलू को उजागर करती है: पत्रकारों की मौत के मामलों में अक्सर जांच की पारदर्शिता और निष्कर्षों पर सवाल उठते हैं, जिससे न्याय मिलने की उम्मीद कम हो जाती है और अपराधियों का हौसला बढ़ता है।

5. सी.एच. नरेश कुमार

डिजिटल पोर्टल ‘टाइम्स ओडिशा’ के पत्रकार नरेश कुमार पर ओडिशा के मलकानगिरी में जुलाई महीने में अज्ञात लोगों ने धारदार हथियारों से हमला किया, जिसके बाद उनकी मौत हो गई थी। यह मामला दिखाता है कि पत्रकारों को सीधे, नृशंस और शारीरिक हमलों का भी सामना करना पड़ रहा है, और यह खतरा छोटे कस्बों और डिजिटल मीडिया तक भी फैल चुका है।

सुरक्षा पर गहराती चिंताएं और ‘दंड मुक्ति’ का सवाल

इन सभी घटनाओं में एक बात समान है: पत्रकारिता का काम ही पत्रकारों के लिए जानलेवा साबित हुआ। वे भ्रष्टाचार, सामाजिक बुराइयों, अपराध और सत्ता के दुरुपयोग को उजागर करने का प्रयास कर रहे थे।

ये पांचों मामले केवल व्यक्तिगत त्रासदियां नहीं हैं, बल्कि पूरे भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी हैं। जब पत्रकार सुरक्षित नहीं होंगे, तो वे खुलकर और निडर होकर अपना काम नहीं कर पाएंगे। इसका सीधा असर नागरिकों तक पहुंचने वाली जानकारी की गुणवत्ता पर पड़ेगा। डर का माहौल सच को दबाएगा, जिससे एक स्वस्थ और जागरूक समाज का निर्माण बाधित होगा।

यह सिर्फ भारत की समस्या नहीं है। दुनिया भर में पत्रकारों को धमकियों, हमलों और हत्याओं का सामना करना पड़ता है। इसी को देखते हुए, संयुक्त राष्ट्र ने साल 2014 में एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके तहत 2 नवंबर को ‘पत्रकारों के खिलाफ अपराधों के लिए दंड मुक्ति समाप्त करने का अंतर्राष्ट्रीय दिवस’ (International Day to End Impunity for Crimes against Journalists) के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया था। यह निर्णय 2 नवंबर 2013 को माली में मारे गए दो फ्रांसीसी पत्रकारों की याद में लिया गया था।

‘दंड मुक्ति’ का अर्थ है कि पत्रकारों पर हमला करने वाले अपराधी बिना किसी सजा के छूट जाते हैं, जिससे उनका अपराध करने का साहस बढ़ता है। भारत जैसे बड़े लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है कि वह संयुक्त राष्ट्र के इस आह्वान पर ध्यान दे और यह सुनिश्चित करे कि पत्रकारों पर हमला करने वाले किसी भी व्यक्ति को कानून के शिकंजे से बचने न दिया जाए।

क्या है आगे की राह

भारत को एक ऐसे माहौल की सख्त जरूरत है, जहां पत्रकार बिना किसी डर के काम कर सकें। इसके लिए सरकार को पत्रकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सख्त कानून बनाने और उनका कड़ाई से पालन करने की जरूरत है। पत्रकारों की हत्या के मामलों की जांच त्वरित, पारदर्शी और निष्पक्ष होनी चाहिए, ताकि अपराधियों को यह संदेश मिले कि उन्हें बख्शा नहीं जाएगा।

लोकतंत्र की जीवंतता के लिए स्वतंत्र और निडर पत्रकारिता अपरिहार्य है। यदि पत्रकार सत्य की मशाल जलाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालते रहेंगे और उन्हें न्याय नहीं मिलेगा, तो देश में सत्य की आवाज हमेशा के लिए दब जाएगी।

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