विचार

दुख और ज्यादा खाना

जिस तरह से हम अपने पेट में जबरन खाने को ठूस-ठूस कर भरते हैं, ठीक उसी तरह समय हमारे जीवन में दुख को भरता है। एक परिस्थिती में हमारी आंखे, तो दूसरी में हमारा पेट रोता है।

जिस तरह से हम अपने पेट में जबरन खाने को ठूस-ठूस कर भरते हैं, ठीक उसी तरह समय हमारे जीवन में दुख को भरता है। एक परिस्थिती में हमारी आंखे, तो दूसरी में हमारा पेट रोता है। जीवन में दुख का होना और पेट में ज्यादा खाने का होना, दोनों ही कड़ियां आपस में जुड़ी हुई हैं। पेट कभी भी खाने का स्वाद नहीं देखता है। पेट की अपनी अलग एक भाषा है जिसे सुनने पर आपकी जीभ को तकलीफ जरुर हो सकती है।

दुख भी कभी किसी इंसान के सुख को नहीं पहचानता है। आपके जीवन में भले ही कितने सुख हों लेकिन दुख, सुख की भाषा को नहीं समझता है। यह भी जब-जहां-जैसे पहुंचना होता है, पहुंच जाता है। इसकी अपनी एक अलग भाषा है जोकि सुख को पसंद नही है। दुख के आगे सुख, हमेशा छोटा लगने लगता है।

दुख और ‘ज्यादा खाना’ का रिश्ता काफी दार्शनिक है। किसी की भी नीजि इच्छा के बगैर उसके जीवन में किया गया कोई भी बदलाव उसे दर्द दे सकता है। इसी प्रकार पेट की छमता से ज्यादा जब आपकी जीभ उसमे भरने की कोशिश करती है तब पेट विद्रोह तो जरुर करता है। लेकिन जीभ के आगे भ्रष्ट हुआ आपका दिमाग पेट की एक भी नहीं सुनता है।

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अधिक से अधिक एक ही सुबह, दोपहर और शाम में, भूखमरी की खबर सुनकर जिस तरह से गोदामों में अनाज की बोरियों को दफन किया जाता है, पेट में खाने के एक-एक निवाले को यह जीभ भर देना चाहती है। पर फायदे के आगे गोदाम मालिकों को क्या ही पता कि उन्होने कितनों की आज ‘अनाज बंदी’ कर जान ले ली है। जीभ को ऐसा नहीं करना चाहिए। पर इसे यू हीं समझ लेना काफी मुश्किल है।

मुश्किल तब और बढ़ जाती है जब दुख आपसे प्यार कर बैठता है। दुख, आपसे से ज्यादा आपकी रुह को प्यार करता है। इतना प्यार की एक-एक रुह भी मजबूर हो जाती है, उस दुख की गवाही देने के लिए। गवाही, बार-बार यही होती है, “मेरे जीवन में यह बदलाव जबरदस्ती किया जा रहा है, मुझे इस बदलाव से न प्यार था और ना है। पर इस बदलाव से मेरे आशिक दुख को एक तरफा प्यार है, जो मुझे इस हालात में देखकर झूम उठता है। मानों जैसे दुख को खुद का ही सुख मिल गया हो”। दुसरों के दुखों में खुशी होने वाले लोगों का भी यही हाल है, जिन्हे दुख में खुशी मिलती है।

अंत में क्या होता है

क्या जीभ को कटघरे में खड़ा करना सही होगा। इससे जीभ की इच्छाओं का क्या होगा। जीभ की प्राकृति का क्या होगा। जीभ पर रोक लगाने से जीभ की पहचान का क्या होगा। अगर रोक नहीं लगी तो यह पेट की आजादी को तहस नहस कर देगा। पेट को बर्बाद ही कर देगा। इससे साफ जाहिर होता है कि आपका पेट स्वतंत्र नहीं है। आपका पेट आपकी जीभ के अधीन है। आपका पेट अब और कुछ नहीं बल्की जीभ का बंधुआ मजदूर ही है। बंधुआ मजदूरी पर संविधान जरुर ही रोक लगाता है पर जीभ पर कौन लगाएगा। क्योंकि आप की सरकार तो स्वाद के आगे नतमस्तक है।

रोक तो एक तरफा प्यार पर भी लगना चाहिए। दुख का प्यार आपको ज्यादा से ज्यादा दुख ही देगा। कई बार तो कम दुख का होना ही, कई लोगों के लिए सुख बन जाता है। उन्हे तो कम दुख होने का दुसरा नाम ही सुख लगने लगता है। जीवन में दुख और ज्यादा खाना, दोनो को ही समय की मार के आगे मुंह से नहीं निकाला जाए तो ठीक रहता है। ज्यादा खाने के बाद उल्टी कर देना, दुख के किस्से हर रोज किसी से गाना, दोनों ही आप ही के लिए हानिकारक होते हैं।

लेखक- शुभम मिश्रा

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