अंत में क्या होता है
अंत में आप अपना सबकुछ दान कर देते हैं। अंत में खुद से खुद को छुड़ाने का रास्ता ही एकमात्र दान का रास्ता है।
अंत में आप अपना सबकुछ दान कर देते हैं। अंत में खुद से खुद को छुड़ाने का रास्ता ही एकमात्र दान का रास्ता है। अपने रिश्ते-नाते, धन-दौलत, कुल-वर्ण, हार-जीत, अधिकार-अंहकार और यहां तक की आपका अपना शरीर भी आपको दान करना ही पड़ता है। अगर दान न हो तो आगे बढ़ना काफी मुश्किल हो जाता है। दान ही तो है जो कुछ क्षण के लिए आपसे आपका सबकुछ मांग लेता है लेकिन अगले ही क्षण यह आपको आप से मिलने का मार्ग बनाता है।
दान आपकी वह अर्थव्यवस्था है जो आप पर कभी भार नहीं बनती है, इसके लिए आपको बड़ी-बड़ी तिजोरियां और उनकी रक्षा में मजबूत ताले और सैनिकों की आवश्यकता नहीं है। दान किसी भी माध्यम से किसी से भी छीना नहीं जा सकता है। यह तो उन भावों की तरह आपके साथ रहता है जिनका कभी नाश नहीं होता है। दान एक ऐसा भाव है जो दानी के भाव के अनुसार मंहगा और सस्ता होता रहता है। दान ही एकमात्र ऐसी वस्तु है जिसे देने वाला और दानी होता चला जाता है। आसान भाषा में कहे तो जो जितना बड़ा दान देता है, उतना ही बड़ा वह दानी कहलाता है।
दान का अवसर जीवनकाल में सभी को मिलता है। यह अवसर किसी के लिए बड़ा तो किसी के लिए छोटा जरुर हो सकता है। लेकिन दान की अपनी ही एक परिभाषा है। साधुजन बताते हैं कि खेत में मेहनत करके, अपने पसीने और परिश्रम से फसल उगाकर, काटकर, पीसाकर और फिर उसी की रोटी बड़े ही सौहार्द के साथ दान देने वाला किसान कहीं ज्यादा ही दानी है उस महाराजा के मुकाबले जोकि जनता को सताकर, अन्याय कर धन अर्जीत करता है और अरबों धन में से करोड़ों का दान देता है। महाराज का दान गणित की संख्या में अधिक मूल्यवान जरुर हो सकता है पर दान को गणित की भाषा में कभी भी जोड़ा नहीं जा सकता है।
दान एक भाव है, जो आपके मन में उस समय आता है जब आप अपनी सवेच्छा से किसी भी वस्तु का दान किसी अन्य प्राणी या प्राकृति को करते हैं। यह भाव ही है जोकि दान को गणित करता है। भाव का मोल ज्ञानियों के अलावा भला कौन ही कर सकता है। साधुजन कहते हैं कि भूखे इंसान को देख, जो अपनी थाली का खाना छोड़, उस भूखे इंसान को परोस देता है और खुद भूखा पेट लिए सो जाता है। असल में वह उस व्यक्ति से ज्यादा दानी होता है जोकि हर सप्ताह भंडारा करवाता है।
खाना, बदलते शरीर और उसकी जरुरतों के साथ आप कम से ज्यादा और फिर कम की तरफ आ जाते हैं। एक समय जीवन काल का ऐसा रहता है जब आप उन सभी वस्तु का भोग करना चाहते हैं जोकि आपने पहले कभी नहीं की हैं। आगे बढ़ते समय के साथ फिर एक छड़ ऐसा भी आ जाता है जब आपका उन्ही वस्तुओं से उस प्रकार का लगाव नहीं रह जाता जैसाकि पहले दिन या वक्त था। आपके ह्रदय में वह लालसा नहीं बच जाती जोकि पहले कभी हुआ करती थी।
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साधु जन कहते हैं कि पौधे पर खिले पुष्प को देखकर आपने मन में इच्छा होती है कि उसे तोड़ कर भगवान को चढ़ा दिया जाए, खुद को उस फूल से सजा लिया जाए या अपने किसी प्रेमी को उस फूल को दे दिया जाए, ताजा फूल सबको भाता है लेकिन जैसे ही वह मूर्झा जाता है आप उस फूल को कहीं फेक देते हैं। आप कभी भी मूर्झाए हुए फूल किसी को भेंट नहीं करना चाहते हैं। जिसकी वजह से अगले ही दिन आप दूसरे ताजा खिले फूल को तोड़ने चले जाते हैं। ठीक इसी प्रकार दान भी है।
आप रोजाना दान करते हैं। दान का एकमात्र स्वरुप धन-दौलत कभी भी नहीं हो सकता है। इस विचार से आप तब-तब दान करते हैं जब आप अपने माता-पिता, गुरुजनों के वचनों की रक्षा के लिए उन सभी भोग वस्तुओं और शारीरिक मोह का त्याग करते हैं जिन्हे पाने के लिए लोगों की एक कतार मरने-मारने को तैयार है। रोज किया जा रहा दान, आपकी अच्छी आदत के रुप में आपकी सदैव रच्छा करता है।
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कुछ दान इंसान अपनी स्वेच्छा से करता है। यह ऐसे दान होते हैं जिन्हे करने के बाद इंसान खुद को खुश और भाग्यशाली महसूस करता है। लेकिन इंसान स्वेच्छा दान को ही एकमात्र दान समझता है। कुछ ऐसे भी दान होते हैं जोकि समय का काल चक्र इंसान से करवाता है। उन्ही में से एक शरीर का दान भी है। अब इंसान चाहे तो इसे स्वेच्छा से करे या फिर अस्वेच्छा से। एक निश्चित समय पर समय का कालचक्र आपसे यह दान करवा ही देता है।
यह आपके जीवनकाल की यात्रा में हुए तरह-तरह के अनुभव और भाव तय करते हैं कि आप अपनी मंजिल पर पहुंचकर मुस्कुएंगे या फिर मंजिल को देख कांप जाएंगे। यह मंजिल आपका वह डर है, जिसके बारे में आप बात करने से भी डरते हैं। आप सब कुछ पूछ लेते हैं पर अपनी मौत को कभी नहीं पूछते हैं। इसलिए अंत में जो आपके साथ होता है इसे एक रहस्य ही रहने दिया जाता है। यह एक ऐसा रहस्य है जिसका सामना सिर्फ दान करने के बाद ही किया जा सकता है।
लेखक – शुभम मिश्रा