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Short Story in Hindi: केवल महिलाएं! नेहरू प्लेस से केंद्रीय संचिवालय तक

Short Story in Hindi: 'ठीक है, मैं निकलता हूं! अब कल मुलाकात होगी' इन शब्दों को कहते हुए मैं मेट्रो स्टेशन की तरफ जाने वाली सड़क के लिए मुड़ा।

Short Story in Hindi: ‘ठीक है, मैं निकलता हूं! अब कल मुलाकात होगी’ इन शब्दों को कहते हुए मैं मेट्रो स्टेशन की तरफ जाने वाली सड़क के लिए मुड़ा। सिर को नीचे झूकाए, दिमाग में दिन भर की नाकामयाबियों का तूफान लिए, मैं अपना गुस्सा सड़क पर तेज़ी से चलकर निकाल देना चाहता था।

कुछ कदम ही आगे बढ़ा था कि सांसो का तेजी से आना जाना शुरू हो गया। माथे पर पसीने की बूंदें भी उभर गईं। पैंट की जेब में तुरंत हाथ डाला, पर ये क्या! रुमाल तो था ही नहीं। एक तो किश्मत ना जाने कहां सोई हुई है और ऊपर से ये रुमाल अब जहां भी हो, आग लग जाए।

मेट्रों की सीढ़ियों पर पहुंचते ही ठंड हवाओं का ऐसा झोंका आया, मानों गर्मी की वजह से व्याकुल शरीर में प्राण आ गए हों। अब बस एक ही ख्वाइस थी कि मेट्रो में बैठने के लिए एक सीट मिल जाए। इस एक सीट के लिए वैसे तो कई यात्री उम्मीदवार वहीं प्लेटफार्म पर पहले से ही खड़े थे; मेट्रो के आने से पहले सीट के लिए यह प्रतिस्पर्धा वाकई खुद में सरकारी नैकरी की याद दिला देता है। लेकिन वही प्राइवेट कोचिंग वालों का उत्साहवर्धन कथन, “तुम्हें तो सिर्फ एक सीट चाहिए, बस उसपर अपना ध्यान केंद्रित करो।” इसकी आड़ में उन्होंने ना जाने कितनों से फीस वसूली कर-कर जो था वह भी छीन लिया। पर इस कथन की सच्चाई जो भी हो इसको बार-बार याद करके मैं अपनी थकान में स्फूर्ति भर देता था।

इसके लिए थके दिमाग ने पूरा होमवर्क कर लिया था। खाली सीट दिखते ही तशरीफ़ का कब्जा होना तय था। मैं अंतिम डिब्बे की तरफ खड़ा हो गया। नवजवान युवाओं का सबसे पसंदीदा डिब्बा जहां आपको मेट्रो में भरी जवानी आराम से दिख सकती है।

मंद-मंद हवाओं को शरीर ने महसूस किया, यह संकेत काफी था कि अब मेट्रो टनल में तेजी के साथ प्लेटफार्म की तरफ आ रही है। धीरे-धीरे यह हवा तेज हुई और मेट्रो की लाइट, टनल के अंधियारे को चीरती हुई अंधेरे में जल रहे दिए की तरह दिखाई देने लगी। यह दिया जैसे-जैसे मेट्रो प्लेटफॉर्म के करीब आ रही थी बड़ा होता जा रहा था।

इतना दिखते ही प्लेटफार्म पर खड़े यात्रियों के व्यवहार में भी बदलाव को देखा जा सकता था। समझदार यात्री उतरने वाले यात्रियों के लिए जगह बनाते हुए खड़े हो रहे थे तो वहीं कुछ एक बस एक सीट के लिए अपनी जान दांव पर लगाकर पीली पट्टी के आगे जा खड़े हुए। दिमाग में वही आरमा लिए कि मेट्रो का दरवाजा खुलते ही बाहर निकलती भीड़ के बीच धक्कामार-कर, सबसे आगे अंदर पहुंचकर, तशरीफ़ के लिए एक सीट पर कब्जा कर लेंगे और फिर यात्रा आराम से कटेगी। लेकिन उन्हे क्या ही पता था कि एक सीट मिल जाने से यात्रा शानदार नहीं हो जाती, हमे इसे खुद शानदार बनानी पड़ती है।

जैसे ही मेट्रो आई मुझे खाली होती सीट साफ-साफ दिखी। मेट्रो का दरवाजा खुलते ही पैरों की स्फूर्ति के साथ सीट पर, मैं पसर सा गया। अंदर बहुत ही खुशी हो रही थी। खुशी इस बात कि भी थी कि बिना किसी धक्का मुक्की के आसानी से सीट मिल गई थी। अब मैं ना ही इधर देख रहा था और ना ही उधर देख रहा था। कुछ समय के लिए ऊपर की तरफ देखता रहा। आजू-बाजू कौन बैठा है और कौन क्या कर रहा है; यह जानने की चेष्टा तनिक भर न की। आंख बंद करने से पहले मैंने यह महसूस किया कि वहां बैठे ज्यादातर महिलाएं ही थी और उनमे से कुछ मुझे ही देख रही थीं। इससे पहले मेट्रो में मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ था। पर मैंने इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।

आंखें बंद होने के बाद दिमाग पर नाकामयाबी हावी हो चुकी थी। मेट्रो के सात स्टेशनों के लिए मैं सिर्फ कान को खुला रखना चाह रहा था। बाकी शरीर के सभी अंगों को अवकाश पर भेज दिया था। कान भी सिर्फ इसलिए काम पर लगा था ताकि केंद्रीय सचिवालय मेट्रो स्टेशन जब आए तो पता लग जाए।

अंत में क्या होता है

स्टेशन आए और गए। लेकिन इन सात स्टेशनों के बीच कोई ऐसा नहीं आया जिसने सीट मांगी हो और यहां तक की मेरे आस पास की खाली सीट पर बैठा हो। जब आंख खुली तो एक और बात पर ध्यान दिया कि दूसरे डिब्बे में कई लोग ऐसे हैं जोकि खड़े हैं। मेरे मन में विचार आया कि न जाने इन लोगों को क्या हो गया है। इतनी सीट यहां खाली है फिर भी यहां आकर बैठकर सफर करने कि जगह यह सब खड़े-खड़े क्यों सफर कर रहे हैं।

यह ख्याल चल ही रहा था है कि मैंने आसपास अपने डिब्बे में नजर घुमाया तो पता चला कि आज इस डिब्बे में सिर्फ और सिर्फ महिलाएं थीं। कोई पुरुष नहीं था। जी हां! सिर्फ महिलाएं। पर ऐसा कैसे हो सकता है? क्या आज सब छुट्टी पर हैं? इसके आगे सोचने की छमता मेरे दिमाग की बंद हो गई थी।

‘अगला स्टेशन केंद्रीय सचिवालय है’ यह सुनते ही मैं खड़ा हुआ, दरवाजे की तरफ गया। मेट्रो का दरवाजा खुला और मैंने जैसे ही पैर बाहर रखा वहां गुलाबी अक्षरों में साफ-साफ लिखा था ” केवल महिलाएं”। ऐसा कैसे हो सकता है? मैं तो महिला नहीं हूं। लिखने से क्या मर्दाना, जनाना हो जाएगा क्या?

मैं तो अंतिम डिब्बे में चढ़ा था। पर अब ऐसा हो चुका था। दिमाग के ऊपर और भार बढ़ता हुआ। जैसे ही भार बढ़ा दिमाग में तेजी से आया अरे अरे यह तो वायलेट लाइन है, और यहां तो उल्टे का सीधा और सीधे का उल्टा है। उन दिनों मेट्रो भीड़ और महिलाओं के साथ हो रहे दुरव्यवहार को देखते हुए, नया-नया ही यह नियम लागू किया गया था, जहां एक डिब्बा महिलाओं के लिए आरक्षित हो गया था। इसमें सिर्फ अब महिलाएं ही सफर कर सकती थी। इस डिब्बे में महिलाओं के अलावा सफर करने वालों पर भारी जुर्माने का प्रावधान रखा गया था; लेकिन इसी दरमियान हर एक मेट्रो लेन पर यह नियम थोड़े अलग-अलग सा था। मेट्रो रेल के बड़े अधिकारी भी इसी कशमकश से गुजर रहे थे।

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ऐसा इसलिए क्योंकि मेट्रो अधिकारियों ने जो डिब्बा महिलाओं के लिए आरक्षित किया वह डिब्बा अगर आप केंद्रीय सचिवालय से नेहरू प्लेस की तरफ जा रहे हैं तब आगे की तरफ होता था और अगर आप नेहरू प्लेस से केंद्रीय सचिवालय की तरफ आ रहे हैं तो वही डब्बा पीछे की तरफ हो जाता था। इसी आगे और पीछे की कशमकश ने मुझे भी ढग कर अपराध करवा दिया।

अभी बस मेरे पैर ही प्लेटफॉर्म पर पड़े थे कि कोई मेरे आगे आकर खड़ा सा हो गया और रास्ता रोकने का प्रयास करने लगा। यह वही मेट्रो के ‘सिक्योरिटी गार्ड्स’ थे जिनके कंधों पर जुर्माने की रकम वसूल करने का दारोमदार था। उनका सबसे पहला प्रश्न ही यही था, “हां यहां कहां? नियम तोड़ते हो? चलिए जुर्माना निकालिए।”

“सब सही ही तो है आप भी तो यहीं खड़े हैं” बात को टालते हुए मैंने भी कह दिया।

“अरे यह महिला कोच है, यहां कहां से निकल रहे हैं” सिक्योरिटी गार्ड आक्रमक होकर बोला।

“क्या?, मैंने पीछे की तरफ देखा और मुझे मेरी ग़लती का एहसास जैसे ही हुआ मैं अंदर ही अंदर शर्म से पानी पानी हो गया। इतनी बड़ी ग़लती वो भी मुझसे मैने कैसे ध्यान न दिया। दिमाग में चल रहे ऐसे ख्यालों के बीच मेरे मुंह से निकला – ओ हो! मैंने यह तो ध्यान ही नहीं दिया, गलती हो गई माफ कर दीजिए। लेकिन वह मेरा रास्ता नहीं छोड़ रहा था।

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अब इससे पहले कि सिक्योरिटी गार्ड कुछ और कहता मैंने तुरंत ही कहा, “यह सब आपके मेट्रो के अधिकारियों की गलती है, कभी यह डिब्बा पीछे हो जाता है कभी यह डिब्बा आगे हो जाता है। एक दिशा में एक तरफ डिब्बा क्यों नहीं निर्धारित कर देते? इसका कोई जुर्माना नहीं मिलेगा। इसके लिए तो आम लोगों को मेट्रो का चलान काटना चाहिए। यह आपके नियमों की गलती है। जाने दीजिए हमें बहुत देर हो रही है”।

सिक्योरिटी गार्ड मुझे देखते ही रह गया और मैं आगे की तरफ बढ़ता हुआ चला गया। केंद्रीय सचिवालय पर मालवीय नगर की तरफ जाने वाली मेट्रो को पकड़ा और इस बार ना ही अंतिम डिब्बे में, ना ही पहले डिब्बे में बल्की किसी भी इनके बीच वाले डिब्बों में चढ़ गया।

इसके कुछ महीनों बाद ही मेट्रो ने स्थाई रुप से, अपने नियमों में बदलाव करते हुए, सभी मेट्रो लाइन पर मेट्रो की गति की दिशा में पहला डिब्बा महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिया। इससे सिर्फ मुझे ही नहीं बल्की तमाम लोगों को राहत मिली जो इस तरह की गलती अक्सर कर देते थे।

इसी प्रकार कई बार जीवन के संघर्ष में, दिमाग में उलझन लिए हम गलत सीट का चुनाव खुद के लिए कर लेते हैं। फिर ऐसे हालातों में यहां यह मायने रखता है कि क्या आपने जानबूझकर इस सीट का चुनाव किया, नियमों को तोड़ा या फिर आपसे यह अनजाने में हो गया और जब आपको आपकी गलती का एहसास हुआ तो आप उसके लिए शर्मिंदा हैं।

लेखक – शुभम मिश्रा 

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