कैसे ‘Bachpan Ka Recharge’ जरूरत पड़ने पर आज भी काम आता है
पार्क से निकलते ही सड़क का किनारा पकड़ मैं तेजी से घर की तरफ भाग रहा था। जैसे ही मैं अंतिम मोड़ पर पहुंचा वहां से कुछ दूरी पर पिताजी खड़े हुए दिखाई दिए। उन्हे देखकर मैं अपनी सांसों को रोकता आराम से चलने लगा।
पार्क से निकलते ही सड़क का किनारा पकड़ मैं तेजी से घर की तरफ भाग रहा था। जैसे ही मैं अंतिम मोड़ पर पहुंचा वहां से कुछ दूरी पर पिताजी खड़े हुए दिखाई दिए। उन्हे देखकर मैं अपनी सांसों को रोकता आराम से चलने लगा। मैं जितना शांत सरल होने की एक्टिंग कर रहा था, उससे भी ज्यादा अशांति भरी चीख के साथ एक चप्पल मेंरी तरफ आई। “कहां रहे रे! कब से तोहका ढूंढत हई” चप्पल के साथ ये शब्द भी मेरी तरफ आए। मेरे पास कोई जवाब नहीं था। बीच सड़क पर एक तरफ पिताजी थे और दूसरी तरफ मैं उनकी फेकी हुई चप्पल के साथ। इससे पहले की पिताजी मेंरी तरफ आगे बढ़ते, मैं तुरंत घर की तरफ भाग निकला। दरवाजे पर पहुंचते ही मुझे याद आया कि घर पर तो पिताजी के दो मित्र आए हुए हैं। दरवाजे से घर के अंदर प्रवेश करने तक मैं फिर से शांत और सरल बन गया।
मैं- नमस्ते अंकल जी!
अंकल- नमस्ते! पापा कहां हैं बेटा।
मैं- मेरे पीछे ही थे, बस आ ही रहे होंगे।
जैसे पिताजी दरवाजे पर पहुंचे मैं उनके कदमों को अपने दिल की घड़कनों में महसूस कर सकता था। क्योंकि अब घर में आए मेहमानों के सामने ही मेरी जमकर पिटाई होने वाली थी। बचाने के लिए कोई भी नहीं था। क्योंकि मां उस समय फसल की कटाई और रख रखाव के लिए गांव गई हुई थीं। घर के आगे वाले कमरे में मेहमान और दूसरे कमरे में मैं अकले। दरवाजे पर से ही पिताजी ने आवाज लगाई।
पिताजी- बाहर निकल! आज तुमको बताते हैं
मैं- जुबान को दांत से दबाए हुए, हाथ जोड़े भगवान का नाम ले रहा था। भगवान आज बचा लो आगे से ऐसा नहीं करेंगे। क्योंकि गलती तो मेरी ही थी। घर पर जब पिताजी के दोस्त आए तो पिताजी ने मुझे रिचार्ज कूपन लेने के लिए भेजा था। और कहा था कि जल्दी लेकर आना कहीं फोन लगाना है, किसी से बात करनी है फोन में पैसा नहीं है। तब मैं उनसे दस रुपये लेकर पास की दुकान पर निकल पड़ा था। लेकिन वहां दस का रिचार्ज कूपन ही खत्म था। फिर मैं आगे की दूकान पर गया जोकि पार्क के पास में थी। वहां रिचार्ज कूपन तो मिला लेकिन मुझे पार्क में मेरे कुछ दोस्त खेलते हुए दिखाई दे गए। मन में आया कि एक मैच 10 मिनट में खेल लेता हूं तब तक पिताजी भी अपने दोस्तों से बात करते रहेंगे उन्हे पता भी नहीं चलेगा। वैसे भी जब से मां गांव गई है तब से घर से क्रिकेट खेला भी नहीं है। मन ऐसा भटका की अब मैं पार्क के अंदर था। कौन पहले बल्लेबाजी करेगा इसके लिए एक पत्थर को उठाया और उसके एक तरफ थूक कर गिला किया। फिर उसे आसमान में उछाल दिया। सामने से दोस्त ने कहा सूखा। लेकिन आया गिला। यानी की बल्लेबाजी हमारी दो लोगों की टीम करेगी। चार ओवर का मैच शुरु हुआ। दोस्त 3 गेंदों पर ही आउट हो गया।
उसके बाद मैने खेलना शुरु किया। और गेंदबाजों को खुद के स्कोर से रिचार्ज कर दिया। लेकिन 3 ओवर के बाद मैं भी आउट हो गया। उसके बाद बारी आई गेंदबाजी की। गेंदबाजी में पहला ओवर डाला लेकिन जैसे ही दूसरा ओवर आया तो याद आया की, जेब में मोबाइल का रिचार्ज है और घर पर पिताजी इंतेजार कर रहे हैं। मैं वहां से भागा। पीछे से आवाज आई अरे फिल्डिंग कौन करेगा? तू करले भाई कुछ जरुरी याद आ गया आता हूं थोड़े टाइम में- मैने कहा। और फिर जैसे ही भाग भाग कर आ ही रहा था कि बीच रास्ते पिताजी को खड़ा देख लिया। यह सब दिमाग में चल ही रहा था। कि इतने में मेहमान यानि की पिताजी के दोस्त बोल पड़े, अरे जाने भी दो, बच्चा है। गलती हो गई आगे से नहीं करेगा।
पिताजी- अरे आप नहीं समझते, ये बदमाश हो गया है।
मेहमान- कोई बात नहीं, अच्छा बताओं कहां थे इतनी देरी से बेटा?
मैं साहस के साथ, धीरे से झूठ बोला क्योंकि सच की सजा और कीमत चुकाने के लिए मैं उस वक्त तैयार नहीं था। मैने कहा रिचार्ज का कूपन आस पास की दुकानों पर खत्म हो गया था, तो उसे लेने मेन रोड़ वाली दुकान पर चला गया था। इसीलिए देरी हो गई।
पिताजी- नान क बाटअ अउर मेन रोड़ घूमत हय (छोटे से हो और मेन रोड़ पर घूम रहे हो)
मेहमान- अरे अब छोड़ो भी, चलो चलते हैं नहीं तो कमेटी के लिए देरी हो जाएगी।
यह सुनकर पिताजी शांत हुए। और फिर अपने दोस्तों के साथ मुझे कुछ कहे बिना दरवाजे से बाहर निकल गए। अब घर में मैं अकेला था। कुछ मिनट पहले जो कुछ भी हुआ उसे मैं याद करके रोने लगा। रोना भी ऐसा कि मानों सच में पिताजी ने मुझे मार दिया हो। अकेलेपन में मां की खुब याद आई। लेकिन उसी समय एक बात समझ में आई कि घर से जो काम करने निकले हो उसी पर अपना फोकस रखो, अगर फोकस कहीं भी किसी भी दिशा में गया तो घर आने में देरी हो जाएगी। देरी कभी-कभार जीवनभर की भी हो सकती है। रात को पिताजी घर पर आए लेकिन उन्होने मुझे शाम की इस घटना को लेकर एक शब्द भी नहीं कहा। लेकिन आज भी मैं उस घटना को रिचार्ज के नाम से याद करता हूं। खासकर की तब जब मैं घर से बाहर निकलता हूं, यही सोचता हूं कि आज मंजिल भले ना मिले हमे लेकिन हम घर आने में देरी नहीं करेंगे क्योंकि घर पर कोई मेरा, मेरी मंजिल से ज्यादा इंतेजार कर रहा है।
कहानी का नाम- बचपन का रिचार्ज (Bachpan Ka Recharge)
लेखक- शुभम मिश्रा (Shubham Mishra)
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